Thursday, 9 January 2025

अगहन का महीना अमूमन सभी हिन्दू सम्प्रदायों के  शादी ब्याह से भरपूर होता है। वैसे तो शादियों में किया जाने वाले खर्च में सभी जगहों पर बेहताशा वृद्धि हुईं है लेकिन हर समाज में हर लगन में एक या दो शादियां ऐसी जरूर होती हैं जो अपने लेन देन की वजह से महीनों तक चर्चा में रहती हैं। 
     मैं मिथिला के श्रोत्रिय ब्राह्मण समुदाय से हूं। जो काफी हद तक अपने आप में सिमटा हुआ है । हर समुदाय की तरह इसमें शादी ब्याह संबंधी बहुत से नियम और कायदे हैं जो समय के साथ बदलते जा रहे हैं।
     अगर 25 से 30साल पहले हमारे यहां की शादियों की बात करें तो ये काफी परंपरागत और सादगी पूर्ण हुआ करती थी। जातिगत नियम काफी कट्टर हुआ करती थी ,शादी में पालन किए जाने वाले नियम काफी परंपरागत और खर्च के लिहाज से आम कन्या या वर के पिता के साथ समाज के लिए भी सहज हुआ करते थे । गौर करने वाली बात ये है कि परंपरा के नाम पर वधू तक का शृंगार बुजुर्ग महिलाओं के द्वारा प्राकृतिक रंगों की सहायता से किया जाता था जिसे पासाहिन कहा जाता था जो सिद्धहस्त और अनुभवी  हाथों के कारण बहुत ही खूबसूरत दिखता था। पासाहीन कई तरह के होते हैं जो किसी भी शुभ अवसर सुहागिनों के माथे पर सिंदूर, विशेष तरह की बिंदियों आदि के द्वारा की जाती है।इनकी चर्चा (पासाहिनो)  मैं अपने दूसरे पोस्ट में विस्तार से करना भी चाहूंगी क्योंकि यह एक दिलचस्प विषय है। शादी में परोसा जाने वाला भोजन शाकाहारी और बिना नमक का होता है।सभी बाराती धोती कुर्ते में रहते हैं और लड़की की मुंह दिखाई भी इतनी ही होती है कि सभी आसानी से वहन कर सकें। पहले के समय अनुसार सभी वैवाहिक कार्यक्रम परिवार और समाज के द्वारा ही  निबटाए जाते थे । चूंकि दहेज के दानव से यह सम्प्रदाय मुक्त है इसलिए लड़की को दिए गए सामानों की चर्चा तो होती थी लेकिन उतनी ही ताकि कम औकात के लोग शर्मिंदगी महसूस न करें । गौरतलब है कि दरभंगा के महाराज भी इसी समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिनका लेन देन राजसी होता था लेकिन जन साधारण के लिए लेन देन संबंधी कोई बाध्यता नहीं थी। इसी कारणवश कई बार वैवाहिक संबंध में आर्थिक विषमता भी देखने में आती थी।सादगी और शालीनता के बावजूद विवाह आने वाले सभी मेहमानों के खाने पीने और रहने की समुचित व्यवस्था की जाती थी। प्राय घर पर बनी मिठाइयां होती थीं जो वक्त बेवक्त आने वाले मेहमानों को भी  परोसी जाती थी। शादी में आने वाले मेहमानों को आस पास के घरों में मेहमानों को ठहराया जाता था इन सभी बातों का तात्पर्य यह है कि हमारे यहां की शादियों मुख्य रूप से संस्कार प्रधान और दिखावे से परे हुआ करती थी। वर और वधु दोनों ही कम उम्र के हुआ करते थे।
     उपर्युक्त सभी बातों की चर्चा मैंने  कई बार भूतकाल में किया है इसका कारण यह है कि विगत पांच वर्षों में हमारे यहां की शादियों में काफी परिवर्तन आया है। सबसे अच्छी बात यह हुई है कि आज के समय में  प्राय वर और वधु दोनों परिपक्व हो जाते हैं और बहुधा लड़कियां भी शादी के समय आत्मनिर्भर होती हैं। आज के समय में विवाह के लिए मात्र वर की मंजूरी को ही पर्याप्त नहीं माना जाता है अब लड़कियां भी अपने विवाह के लिए  राय देती हैं। अंतर्जातीय विवाह में काफी वृद्धि हुई है और प्राय इस तरह के विवाह को परिवारिक और सामाजिक मंजूरी मिल चुकी है।
लेकिन किसी भी समाज पर समय के सकारात्मक प्रभाव के साथ साथ नकारात्मक प्रभाव पड़ना लाज़मी है। हमारे यहां के विवाह जयमाल,हल्दी या मेंहदी जैसे फंक्शन से परे होते थे जो कि अब दूसरी शादी में दिखने लगा है,शादियां भव्य और फिल्मी दुनिया से प्रभावित होने लगी हैं जो खर्च और दिखावे से ओत प्रोत से भरी हुई होती हैं। दिखावे के इस दौर में न सिर्फ वर वधु बल्कि उनके परिजनों को भी बेशकीमती उपहार दिए जा रहे हैं ।
क्या इस तरह की देनदारी पहले की शादियों में नहीं होती थी ?  जब इस बात की चर्चा मैंने अपने      
से की तो उनका सहज जवाब था बिल्कुल होती थी  क्योंकि माता पिता को सदैव ही अपने संतानों के भविष्य को हर तरह से सुखी बनाना चाहते हैं। कई बार बेटियों को विवाह के बाद आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता था ऐसे में माता पिता अनेकों प्रकार से उनकी मदद करने के आगे आते थे । उनके बच्चे अर्थात नाती नातिन का पालन पोषण ननिहाल में किया जाता था। बेटियों को समय समय पर सनेश (उपहार) भेजा जाता था ।कई बार उन्हें (बेटियों को )ससुराल में चिट्ठी पत्री के खर्च के नाम पर मासिक मदद इस तरह से की जाती थी जिससे ससुराल पक्ष की गरिमा को ठेस न पहुंचे और बेटियों को देने का उद्देश्य पूरा हो जाए और तो और बेटियों को पितृ पक्ष से जमीन दी जाती थी।
आज का दौर बदल चुका है हमारी सोच ये है कि अगर हम किसी को कुछ दे